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सिद्ध०
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करण भेद रत्नत्रय धारी, कर्म भेद निज भाव संवारी । करता भेद आप पररणामी, भेदाभेद रूप प्ररणमामी ॥२२॥ ॐ ह्री स्वस्वरूपसाधक सर्वसाधुभ्यो नम. मध्यं । मनोयोग कृत जिय संसारी, क्रोधारम्भ करत दुखकारी । तासों रहित सिद्ध भगवाना, अंतर शुद्ध करू तिन ध्याना ॥२३॥ ॐ ह्री प्रकृतमनः कोष सरम्भमनोगुप्तये नमः श्रर्घ्यं । परके मन कोधी संरम्भा, करत मूढ नाना प्रारम्भा । सिद्धराज प्ररणम् तिस त्यागी, निर्विकल्प निज गुरणके भागी ॥ २४ ॥ ॐ ह्री प्रकारितमनः क्रोधसंरम्भनिर्विकल्पधर्माय नम अध्यं । छन्द भुजगप्रान
मनोयोग रंभा प्रशंसीक रोधा, निजानंद को मान ठाने अबोधा । महानिंदनी भावको त्याग दीना, निजानंदको स्वाद ही आप लीना । ॐ ह्री नानुमोदितमनः क्रोधसरम्भसानन्दधर्माय नमः श्रर्घ्यं । मनोयोग क्रोधी समारंभ धारी, सदा जीव भोगे महाखेद भारी । महानंद श्राख्यातको भाव पायो, नमों सिद्ध सो दोष नाहीं उपायो ।
पचम
पूजा
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