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यह अनन्त अनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२४॥ सिद्ध
. ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीक्रोधकर्मरहिताय नम अयं । वि० देव धर्म गुरुसों अभिमान, उदय भये मिथ्या सरधान । यह अनन्त अनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२५॥
ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीमानकर्मरहिताय नम. अर्घ्य । छलसो धर्म रीति दलमलै, उदय होय मिथ्या जब चलै । यह अनन्त अनुबंध निवार, प्रणम् सिद्ध महासुखकार ॥२६॥
___ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीमायाकर्मरहिताय नम. अध्यं । लोभ उदय निर्मालय दर्ब, भक्षे महानिद मति सर्व । यह अनन्त अनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रणमू सुखकार ॥२७॥ ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीलोभकर्मरहिताय नम अर्घ्य ।
सुन्दरी छन्द। क्रोध करि अणुव्रत नहिं लीजिये, चारित मोह प्रकृति सु भनीजिए। पूजा है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नम् तिन नासियो ॥२८॥
ॐ ह्री अप्रत्याख्यानावरणकोषकर्मरहिताय नम. प्रध्यं ।
सुन्दरी छन्द।।
पचम