________________
सिद्ध
སྠཽ
विः
५६
शशि मण्डल जानो सो अक्षत, पुंजधार पद कंज नये ॥ लोकाधीश शीश चूड़ामणि, सिद्धचक्र उरधारा हो । मरिण सुवरन, सुमरत ही भवपारा हो ॥
चौसठ
दुगुरण सुगुरण
ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुरणसहित श्रोसमत्तरगाण दसरण वीर्यं सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुलघुमव्वावाह अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत निर्वपामीति स्वाहा || ३ || मदन वदन दुतिहरन वरन रति लोचन अलिगरण छाय रहे । पुष्पमाल वासित विलास सो, भेंट धरत उर काम दहे ॥ लोकाधीश०
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुण सयुक्ताय श्री समत्तवारणदसरणवीर्य सुहमत्तहेव श्रवग्गाहरण अगुरुलघुमव्वावाह कामवाणविनाशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ||४|| चितवत मन वररणत रसना रस, स्वाद लेत ही तृप्त थये । जन्मांतरहू छुधानिवारै, सो नेवज तुम भेट धरै ॥ लोकाधीश०
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुरणसहित श्री समत्तरणारणदसरणवीर्य सुहमत्तहेव प्रवरगाण अगुरुल घुमव्वावाह क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि० ॥५॥
लवमणिप्रभा अनूपम सुर निज शीश धररणकी रास करें । या विन तुच्छ विभव निजजाने, सो दीपक तुम भेटधरै ॥ लोकाधीश० ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदसरणवीर्यं सुहमत्तहेव
पचम
पूजा
५६