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वि०
सो अक्षतौघ अखण्ड अनुपम पुज धरि सन्मुख धरू,
षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥ अक्षतं ॥३॥ सिद्ध जग प्रकट काम सुभट विकट कर हट करत जिय घट जगा, पर तुम शील कटक सुघट निकट सरचाप पटक सुभट भगा। । इम पुष्पराशि सुवास तुम ढिंग कर सुयश बहु उच्चरू,
षोडश गुरणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूं ॥पुष्प।। ४ ॥ इ जीवन सतावत नहिं अघावत क्षुधा डाइनसी बनी। । सो तुम हनी तुम ढिग न आवत जान यह विधि हम ठनी।। । नैवेद्यके संकेत करि निज क्षुधानाशन विधि करू, ६ षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू॥ नैवेद्य ॥५॥ ६ मै मोह अन्ध अशक्त अरु यह विषम भववन है महा, ऐसे रुले को ज्ञानदुति बिन पार निवरण को कहा। सो ज्ञान चक्षु उधार स्वामी दीप ले पायनि परू, षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥दीपं॥६॥
प्रथम
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