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नमसिद्धचक्र शिक्-भूप, अचल विराजत है ॥८॥
ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने नमः श्रीसम्मत्तणाणदसंण-वीरज सुहमत्तहेव विप्रवग्गाहण मगुरुलघुमन्वावाह अष्टगुणसयुक्ताय फल निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
करि दर्प अर्घ वसु जात, यात ध्यावत हूँ। अष्टांग सुगुरण विख्यात, तुम ढिंग पावत हूँ। अन्तरगत अष्ट · स्वरूप, गुरणमई राजत हैं।
नमू सिद्धचक्र शिव-भूप अचल विराजत हैं ॥६॥ अयं० गीता छन्द-निर्मल सलिल शुभवास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी।
शुभ पुष्प मधुकर नित रमैं, चरु प्रचुरस्वाद सुविधि घनी। करि दीपमाल उजाल धूपायन, रसायन फल भले। करि अर्घ सिद्धसमूह पूजत, कर्म दल सब दलमले ॥१॥ ते कर्म नशाय युगप्रकृति, ज्ञान निर्मलरूप है। दुख जन्म टाल अपार गुरण, सूक्षम सरूप अनूप है ॥ कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अछेव शिव कमलापती।
प्रथम
पूजा