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सिद्ध
वि०
मुनि ध्येय सेय प्रमेय चहुँ गुरण, ज्ञेय धो हम शुभमती ।२। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये नम' सम्मत्तणाणादि अट्ठगुणाण अनर्घ्य पदप्राप्तये महाय॑म् ।
अथ अष्टगुरण अर्घ (चौपाई १६ मात्रा) मिथ्या त्रय चउ प्रादि कषाया, मोहनाश छायक गुण पाया। निज अनुभव प्रत्यक्ष सरूपा, नमूसिद्ध समकित गुणभूपा ॥१॥
ॐ ह्री सम्यक्त्वाय नमः प्रध्यं ॥१॥ सकल त्रिधा षट् द्रव्य अनन्ता, युगपत जानत है भगवंता। निर प्रावरण विशद स्वाधीना, ज्ञानानन्द परम रस लीना ॥२॥
ॐ ह्री मनन्तज्ञानाय नम अध्यं ॥ २॥ चक्षु अचक्षु अवधि विधि नाशी, केवल दर्श ज्योति परकाशी। सकल ज्ञेय युगपत अवलोका, उत्तम दर्श नम् सिद्धों का ॥३॥
___ॐ ह्री अनन्तदर्शनाय नम अध्यं ॥३॥ अन्तराय विधि प्रकृति अपारा, जीवशक्ति घाते निरधारा।। ते सब घात अतुल बल स्वामी, लसत अखेद सिद्ध प्रणमामी ॥४॥
ॐ ह्री अनन्तवीर्याय नमः प्रध्यं ॥४॥
प्रथम
पूजा