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अहिमिन्द्रन मन ललचाय, भक्षरण उमगाने । अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत है। नरसिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। नैवेद्यं ॥५॥ फैली दीपन की जोति, अति परकाश करै। जिम स्याद्वाद उद्योत संशय तिमिर हरै। अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरगमई राजत है। नम सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। दीपं० ॥६॥ धरि अग्नि धूप के ढेर, गंध उडावत हूँ। कर्मों की धूप बखेर, ठोंक जरावत हूँ ॥ अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरगमई राजत है। नम् सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है ॥ धूपं० ॥७॥ प्रथम जिन धर्म वृक्षकी डाल, शिवफल सोहत है। इस शुभ फल कंचन थाल,, भविजन मोहत हैं। अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुणमई राजत हैं।' .