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सिद्ध वि०
नातर सब काष्ट समेत, ईधन ही थपना ॥
अन्तरगत अष्ट. स्वरूप, गुरगमई राजत है। । नम सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। ॐ ह्री णमो सिद्धारण श्री सिद्धपमेष्ठिने नम. श्रीसमत्तणाणदसणवीरज सुहमत्तहेव अव. . गाहण अगुरुल घुमव्वाह अष्टगुण-सयुक्ताय चन्दनम् नि० ॥२॥
। दीरघ शशि किरण समान, अक्षत ल्यावत हूँ। 'शशिमंडल सम बहुमान, पूज रचावत हूँ॥ अन्तरंगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत हैं। नमू सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है।अक्षतं ।३।
तुम चरण चन्द्र के पास, पुष्प धरे सोहैं। ‘मान नक्षत्रन की रास, सोहत मन मोहैं।
अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत है।
न सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है ।पुष्पं०॥४॥ पूजा , उत्तम नेवज बहु भांति, सरस सुधा साने।
प्रथम