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सिद्ध
वि०
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त्यागत एक रूप ठहराय, नमू एकत्व गती सुखदाय ॥७३॥
ॐ ह्री नानुमोदितवचनसमारभएकत्वगताय नम अयं । मानी जिय निज वचन उचार, वरतत है प्रारम्भ मझार । परमातम हो तजि यह भाव, नमू धर्मपति धर्म स्वभाव ॥७४॥ ___ॐ ह्री प्रकृतवचनमानारभ परमात्मधर्मराजधर्मस्वभावाय नम अयं । सोरठा-मानी बोले बैन, परप्रेरण प्रारम्भमें।
सो त्यागो तुम ऐन, शाश्वत सुख प्रातम नमू॥७॥ ॐ ह्री अकारितवचनमानारम्भशाश्वतानन्दाय नम. अध्यं । हर्षित वचन उचार, मान सहित प्रारम्भमय । सो तुम भाव विडार, निजानन्द रस घन नम्॥७६॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचनमानारम्भ-अमृतपूरणाय नम अध्यं ।
पद्धडी छन्द । धरि कुटिल भाव जो कहत वैन, संरम्भ रूप पापिष्ट एन । तुम धन्य धन्य यही रीति त्याग, हो बेहद धर्मस्वरूप भाग ॥७७॥- ७४
ॐ ह्री प्रकृतवचनमायासरम्भमनन्तधर्मकरूपाय नम अयं ।
पचम