________________
सिद्ध
वि०
लोकविषै तुम मार्गको, मानत हैं बुधवन्त । तर्क हेतु करुणा लिये, यातें माने संत ॥ही पह लोकाध्यक्षाय नम प्रध्य । ४७२ । काहूके वशमे नहीं, काहू नमत न शीश । कठिन रीति धारै प्रभू, नमू सदा जगदीश ॥ॐही प्रहं दुरोघ्रष्टाय नम प्रध्यं ।४७३ ३ दासनिके प्रतिपाल कर, शरणागति हितकार। भवि दुखियनको पोषकर, दियो अखं पदसार हीग्रह मव्यबन्धवे नम प्रय,४७४, निराकरण करि कर्मको, सरल सिद्ध गति धार । शिवथल जाय सुवास लहि, धर्म द्रव्यसहकार ॥ॐ ह्री मह निरस्तकर्माय नमःमर्थ्य ! मुनि ध्यावै पावै सुपद, निकट भव्य धरि ध्यान । पावे निज कल्याण नित, ध्यान योग तुममान ॥ॐह्रींप्रहपरमध्येजिनायनमाग्री रक्षक हो जगके सदा, धर्म दान दातार ।
प्रष्टम पोषित हो सब जीवके, बंदूभाव लगार ॥ ही पहूँ जगनापहराय नमः अध्य|४॥ पूजा मोह प्रचंड बली जयो, अतुल वीर्य भगवान ।।
३३२३ । शीघ्र गमन करि शिवगये, नमूहेत कल्याण ॥ॐ ह्री महं मोहारिजयाय नमः अध्य||