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तीन लोक शिरमौर तुम, सब पूजत हरषाय । मिद्ध० परमेश्वर हो जगतके, बंदत हूँ तिन पाय ॥ॐ ह्रीनहत्रिजगत्परमेश्वरायनमःप्रय ४७६ वि० लोकशिखरपर अचल नित, राजत है तिहुँ काल ।
सर्वोत्तम आसन लियो, लोक शिरोमरिणभाल ॥ॐ ह्रीमहविश्वासिनेनम अध्य|४८० विश्वभूति प्राणीनके, ईश्वर है भगवान । सबके शिरपर पग धरै, सर्व प्रान तिन मान ॥ॐ ह्रीमह विश्वभूतेशायनम मयं ४८१ मोक्ष संपदा होत ही, नित अक्षय ऐश्वर्य । कौन मूढ़ कौड़ी लहै, सर्वोत्तम धनवर्य ॥४ह्रीमहं विभवाय नमःअयं ।।४८३।। त्रिभुवन ईश्वर हो तुम्हीं, और जीव है रंक । तुम तज चाहै औरको, ऐसो को बुध बंक ॥ ह्रीग्रह त्रिभुवनेश्वराय नमःप्रय । उत्तरोत्तर तिहुँ लोकम, दुर्लभ लब्धि कराय। तुम पद दुर्लभ कठिन है, महा भाग सो पाय ॥ॐ ह्रीअर्हत्रिजगदुर्लभाय नम अध्यं .बढवारी परणामसो, पूर्ण अभ्युदय पाय ।
गय ॥ॐ ह्रीं मह प्रभ्युदयाय नम प्रध्यं ॥४८॥
अष्टम
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