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ऐरावतपर रूढ़ हैं, देव नृत्यता मांड। मद्ध० यूजत है सो भक्तिसो, मेटि भवार्णव हांड ॥* ही अहं देवरावतासीनायनमःअध्यं । वि. सुरनर चारण मुनि जजै, सुलभ गमन अकाश।
परिपूरण हर्षात हैं, पूरै मन की आश॥ ह्री मह हर्षाकुलामरखगचारणार्षिमतोत्सवाय -रक्षक हो षट कायके, शरणागति प्रतिपाल। सर्वव्यापि निज ज्ञानतें, पूजत होय निहाल ॥४ह्री ग्रहं विष्णवे नम अध्यं ।। २४३।। महा उच्च प्रासन प्रभू, है सुमेर विख्यात । जन्माभिषेक सुरेन्द्र करि, पूजतमनउमगात ॥ ही अहस्नानपीठताहसराजे नम प्रय जाकरि तरिए तीर्थसो, मान मुनिगरण मान्य । तुम सम कौन जुश्रेष्ठ है,असत्यार्थ है अन्य ॥ॐहीहतीर्थसामान्यदुग्धाब्धयेनम अध्य लोकस्नान गिलानता, मेटै मैल शरीर। पातम प्रक्षालितकियो, तुम्ही ज्ञान सुनीर॥ह्री ग्रह स्नानाम्बूस्वावासवायनम अयं पूजा तारण तरण सुभाव है, तीन लोक विख्यात । ज्यूं सुगंध चम्पाकली,गन्धमई कहलात राहीमहँगन्धपवित्रितत्रिलोकायनम अयं२४७
अष्टम