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निरमोह अकोह अबाधित हो, परभाव थकी न बिराधित हो। सिद्ध निरशंस चराचर जानत है, हम सिद्ध सु ज्ञान प्रमानत हैं ॥२॥
ॐ ह्री सम्यग्ज्ञानाय नम. अय॑ । ५६, सब राग विरोध निवारन है, निज भाव थकी निज धारन है। परमें न कभू निज भाव वहै, अति सम्यक्चारित्र नाम यहै ॥३॥
ह्री सम्यकचारित्राय नमःअध्यं । उतपाद विनाश न बाध धरै, परनाम सुभाव नहीं निसरै। ६ तुम धारत हो यह धर्म महा, हम पूजत है पद शीश यहां ॥४॥
ॐ ह्री अस्तित्वधर्माय नम अयं निज भावनतै व्यतिरिक्त न हो, प्रनमों गुणरूप गुणात्मन हो। । यह वस्तु सुभाव सदा विलसो, हम पूजत है सब पाप नसो ॥५॥
ॐ ह्री वस्तुत्वधर्माय नम अध्यं । । परमारण न जानत है तिनको, छिन रोग न पावत है जिनकों। अप्रमेय महागुरण धारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥६॥
ही अप्रमेयधर्माय नम. अर्ध्य ।