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सिद्ध
वि०
मिथ्यामतिको नाश करि, तत्त्वज्ञान परकाश । दीप्ति रूप रविसम सदा, करो सदा उरवास ॥ ह्रीमहंतत्वपकाशायनम.प्रयं ।१६। कर्मशत्रुजीते सु जिन, तिनके स्वामी सार । धर्ममार्ग प्रकटात है, शुद्ध सुलभ सुखकार ॥ ॐ ह्री प्रहं जिनकमजितेनम प्रध्यं ॥१७॥ अमृत सम निज दृष्टिसो, यथाख्यात प्राचार । तिन सबके स्वामी नपायो शिवपद सार ।। ह्रौं प्रहं जिनेशाय नम अध्यं ॥१८॥ समोसरण आदिक विभव, तिसके तुम परधान । शद्धातम शिवपंद लहो, नम कर्मकी हान॥ ॐ ह्री महजिननायकायनम अध्यं ।।१९।। सूरज तम तिहुँ लोकले, मिथ्या तिमिर निवार ।
र।। *ही ग्रह जिनने नम प्रय॑ ।।२०। जन्म मरण दुख जीतिकर, जिन जिन नाम धराय।
अष्टम नमूसिद्ध परमातमा, भवदुख सहज नसाय॥ ॐ ह्री प्रहं जनजेत्रे नम प्रय॑ ।।२१। पूजा अचल अबाधित पद लहो, निज स्वभाव दृढ़ भाय ।
२५८ नमूसिद्धकर-जोरिकर, भाव सहित उर लाय॥ही महं जिनपरिदृढायनम अर्घ्य ।