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इष्टानिष्ट विभाव विन, समदृष्टी स्वध्यान । । मगन रहै निज पद विषै, ध्यान रूप भगवान॥ॐ ह्रीपह महाध्यानिने नम मध्यं । ,
। स्व सुभाव'नहीं त्याग है, नहीं ग्रहण पर माहि। सिद्ध पाप कलाप न आपमे, परम शुद्ध नमूताहि ॥ॐ ह्री प्रहं महानतिने नम.प्रध्या५२९ ।
क्रोध प्रकति विनाशके, धरै क्षमा निज भाव। , समरस स्वादसु लहत है, बंदू शुद्ध स्वभाव हीमह महामाय नमःप्रध्यं ॥५३012
मोह रूप सन्तापविन, शीतल महा स्वभाव । पूरण सुंख'पाकुल नहीं, बंदू मनधर चाव ॥ ही प्रहमहाशोतलायनम प्रन्यं ५३१ । - मन इन्द्रिय के क्षोभ विन, महा शांति सुखरूप। निजपद रमरण स्वभाव नित,में बंदू शिवभूप॥ होमहं महाशाताप नमःप्रयं ।। मन इन्द्रिय को दमन कर, पायो ज्ञान अतीन्द्र । स्वाभाविक स्वशक्ति कर बंदू भये जितेन्द्र ॥ह्रोमह महोदयाप नम मध्य ५३३॥ पर पदार्थ को क्लेश तजि, व्याप निजपद माहि। स्वच्छ स्वभाव विराजते,पूजत हूँ नित ताहि ॥ॐ ह्रींग्रहं नितंपायनमःमध्यं ।५३४॥
प्रप्टम
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