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ईयों अजोग कारज नहीं होई, तुम गुण कथन कठिन है सोई। या सर्व जैन शासन जिनमाहीं, भाग अनन्त धरै तुम नाहीं ॥५॥
गोखुर मे नहिं सिंधु समावे, वायस लोक अन्त नहीं पावै।
ताते केवल भक्ति भाव तुम, पावन करो अपावन उर हम ॥६॥ १ जे तुम यश निज मुख उच्चार, ते तिहुँ लोक सुजस विस्तारै। ६ तुम गुण गान मात्र कर प्रानी, पावै सुगुरण महा सुखदानी ॥७॥ जिन चित ध्यान सलिल तुम धारा, ते मुनि तीरथ है निरधारा । तुम गुण हंस तुम्ही सरवासी, वचन जाल में लेत न फांसी ॥८॥ | जगत बंधु गुणसिंधु दयानिधि, बीजभूत कल्यारण सर्वसिधि। अक्षय शिव स्वरूप श्रिय स्वामी, पूरण निजानन्द विश्रामी ॥६॥
शरणागत सर्वस्व सुहितकर, जन्म मरण दुख प्राधि व्याधि हर। पचम ई संत भक्ति तुम हो अनुरागी, निश्चै अजर अमर पद भागी॥१०॥
ॐ ह्री चतु षष्टिदलोपरिस्थितसिद्ध भ्यो नमः महायं निर्वपामीति स्वाहा ।
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