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तृष्णादुखकोमूल है, सुखी भये तिस नाश ।
मनवचतन करि मै नमू, है आनन्दविलास ॥४ह्रीं प्रहं वीततृष्णायनम अयं ।८७। सिद्ध अन्तर बाहय निरिच्छ है, एकी रूप अनूप ।
निष्पृह परमेश्वर नमू, निजानंद शिवभूप ॥ॐ ह्री प्रहं प्रसगाय नम अध्यं ।।८८॥ क्षायिक समकितको धरै, निर्भय थिरता रूप। निजानंदसो नहिं चिगें, मैं बंदूशिवभूप ॥ॐ ह्री ग्रह निर्भयाय नम अयं 1;८६|| ६ स्वप्न प्रमादी जीवके, अल्प-शक्ति सो होय। निज बल अतुल महा धरै, सिद्ध कहावै सोय॥ह्रीं अहं अस्वप्नाय नम अयं ६०। दर्श ज्ञान सुख भोगतै, खेद न रंचक होय । सो अनत बलके धनी, सिद्ध नमामी सोय ॥ ॐ ह्री ग्रह नि श्रमाय नम अयं ॥११॥ युगपत सब प्रापत भये, जानत है सब भेव । ३ संशय विन आश्चर्य नहीं, नमूसिद्धस्वयमेव ॥ॐ ह्रीं ग्रह वोसविस्मयाय नमोऽयं । अष्ट सिद्ध सनातन कालतें, जगमें है परसिद्ध । तथा जन्म फिर नहीं धरै, नमजोर करसिद्ध ॥ॐ ह्रींग्रह प्रजन्मिने नम अर्घ्य ।१३।
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