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शुद्ध द्रव्य मे रत नमू, निज सुख सहज उपाव ॥१०१॥
ॐ ह्रीं प्रकृतकायक्रोधारम्भशुद्धद्रव्यरताय नमः प्रध्यं । क्रोधित कायारम्भ नहि, रंच प्रपंच कराय । पंचरूप संसार हनि, नमू, पंचमगति राय ॥१०२॥ ____ॐ ह्रो अकारितकायक्रोधारम्भससार-छेदकाय नमः अध्यं । क्रोधित कायारम्भ मे हर्ष विषाद विडार । अनेकांत वस्तुत्व गुण, धरै नमों पद सार ॥१०३॥
ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोघारम्भजैनधर्माय नमः मध्य । मान सहित संरंभकी, तनसों रचना त्याग। पर प्रवेश विन रूप,जिन, लियो नम्ब ढ़भाग ॥१०४॥
___ॐ ह्री प्रकृतमानकायसरम्भस्वरूपायगुप्तये नम अयं । मान उदय संरम्भ विधि, तनसो नहीं कराय ।