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निज स्वरूप परकाश है, निरावर्ण ज्यों सूर । है तुमको पूजत भावसों, मोह कर्मको चूर ॥ॐ ह्रीमहनिरावरणमूर्यविनाय नम अध्य। ।
निज भावनते मोक्ष हो, ते ही भाव रहात । , मिद्ध० स्वगरण स्व परजायमे, थिरता भाव धरात ॥ॐ ह्रीमह स्वरूपाजिनाय नम अध्यं ।।
सब कुभावको जीतियो, शुद्ध भये निरमूल। शद्धातम कहलात हो, नमत नशे अघ शूल ॥ॐ ह्रीग्रह प्रकृतिप्रियायनम अध्यं ।८६८ निज सन्मतिके सन्मती, निज बुधके बुधवान।
शुभ ज्ञाता शुभ ज्ञान हो, पूजत मिथ्या हान॥होपहविशुद्धसन्मतिजिनायनम अध्या, । कर्म प्रकृतिको अंश बिन, उत्तर हो या मूल। शद्धरूप अति तेज घन,ज्यो रविबिंब अधूल॥हीग्रहशुद्धरूपजिनायनम अयं ।८७० आदि पुरुष आदीश जिन, आदि धर्म अवतार।
प्रष्टम आदि मोक्ष दातार हो,प्रादि कर्म हरतार ॥ ही अहं प्राद्यवेदमे नमोऽयं ॥१७॥ पूजा नहिं विकार पावै कभी, रहो सदा सुखरूप । रोग शोक व्याप नहीं, निवसै सदा अनूप ॥ॐ ह्री प्रहं निर्विकृतये नमोऽयं ८७२
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