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सो काल अनन्त दियो बिताय, तामे झकोर दुख रूप खाय ।
वि०
सिद्ध मो दुखी देख उर दया आन, इम पार करो कर ग्रहरण पान ॥१२॥ तुम ही हो इस पुरुषार्थ जोग, अरु है अशक्त करि विषय रोग । सुर नर पशु दास कहें अनन्त, इनमें से भी इक जान 'सन्त' ॥१३॥
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घत्ता - कवित्त |
जय विधन जलधि जल हनन पवन बल सकल पाप मल जारन हो । जय मोह उपल हन वजू असल दुख अनिल ताप जल कारन हो ॥ ज्यू पंगु चढ़ गिर, गूंग भरे सुर, अभुज सिन्धु तर कष्ट भरें । त्यो तुम थुति काम महा लज ठाम, सु अंत 'संत' पररणाम करें || ॐ ह्री चतुर्विंशत्यधिकसहस्रगुरणयुक्तसिद्ध' भ्यो नम अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । इति पूर्णाध्यं ।
दोहा -- तीन लोकचूड़ामणि, सदा रहो जयवन्त । विघ्नहरण मंगल करन, तुम्हें नमें नित 'संत' ॥१॥
इत्याशीर्वाद ।
अष्टम
पूजा
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