________________
सिद्ध०
वि०
१४
पायात वास्तु-विधिष्ट-सन्निवेशा योग्याश-भाग-परिपुष्ट-वपु प्रदेशा । अस्मिन्मखे रुचिर-सुस्थित-भूषणाके सुस्था यथार्ह-विधिना जिन-भक्ति-भाज. ॥
हे वास्तु कुमार जाति के देवो | हमारे इस पूजा विधान मे स्वकीय योग्य अश भाग से परिपुष्ट शरीर युक्त एव सुन्दर प्राभूपणो को धारण करके भगवान की भक्ति मे मलान हो पधारो एव समुचित स्थान पर विराजो।
बाद मे पवनकुमार जाति के देवो को कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात मारुतसुराः पवनोद्भटाशाः, सघट्ट-सलसित-निर्मलतातरीक्षा ।
वात्यादि-दोष-परिभूत-वसुन्धराया, प्रत्यूह-कर्म-निखिल परिमार्जयन्तु ।।
आकाश एव दिशाओ को पवन द्वारा शुद्ध करने वाले हे वायुकुमार देवो | हमारे इस । पूजा विधान यज्ञ मे आकर वायु सम्वन्धी विघ्नो को दूर करो।
फिर मेघकुमार जाति के देवो से कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात निर्मलन भ'कृतसन्निवेशा मेघासुरा प्रमदभारनमच्छिरस्काः ।
अस्मिन्मखे विकृतविक्रियया निताते सुस्था भवन्तु जिनक्तिमुदाहरन्तु ।।
स्वच्छ आकाश से युक्त हे मेघकुमार जाति के देवो । हमारे इस पूजा विधान मे आकर १४ तिष्ठो एव मेघ सम्बन्धी समस्त उपद्रवो को दूर करो।
तत्पश्चात् अग्निकुमार देवो से कहे और पुष्पक्षेपण करे।