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सिद्ध०
वि.
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सब विभावमय विधन नाशकर, मंगल धर्म स्वरूपा। सो अरहन्त भये परमातम, नम त्रियोग निरूपा ॥३८,
ॐ ह्री अर्हन्मगलधर्मस्वरूपाय नम अयं । सर्व जगत सम्बन्ध विघन नहीं, उत्तम मंगल सोई। सो अरहन्त भये शिववासी, पूजत शिवसुख होई ॥३६॥
ॐ ह्री अहन्मगलउत्तमाय नमः प्रध्यं । लोकातीत त्रिलोक पूज्य जिन, लोकोत्तम गुणधारी। लोकशिखर सुखरूप विराजै, तिनपद धोक हमारी ॥४०॥
ॐ ह्री अहल्लोकोतमाय नमः अध्यं । लोकाश्रित गुरण सब विभाव है, श्रीजिनपदसो न्यारे । तिनको त्याग भये शिव बन्द, काटो बन्ध हमारे ॥४१
ॐ ह्री अर्हल्लोकोत्तमगुणाय नम अध्यं । मिथ्या मतिकर सहित ज्ञान, अज्ञान जगतमे सारो। ता विनाशि अरहन्त कहो, लोकोत्तम पूज हमारो ॥४२॥
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमज्ञानाय नम अयं ।
षष्ठम पूजा