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पद्ध
वि०
जय सशयादि भूमतम निवार, जय स्वामिभक्ति द्युतिश्रुति अपार जय युगपत सकल प्रत्यक्षलक्ष, जय निरावरण निर्मल अनक्ष ॥२॥ जय जय जय सुखसागर अगाध, निरद्वन्द निरामय निर-उपाधि । जय मन वच तन ब्यापार नाश, जय थिरसरूप निज पद प्रकाश ।३।। जय पर निमित्त मुख दुख निवार, निरलेप निराश्रय निविकार।। निजमे परको परमें न आप, परवेश न हो नित निर मिलाप ॥४॥ तुम परम धरम आराध्य सार, निज सम करि कारण दुनिवार । तुम पंच परम प्राचार युक्त, नित भक्त वर्ग दातार मुक्त ॥५॥ एकादशांग सर्वाग पूर्व, स्वै अनुभव पायो फल अपूर्व । अन्तर बाहिर परिग्रह नसाय, परमारथ साधू पद लहाय ॥६॥ हम पूजत निज उर भक्ति ठान, पावें निश्चय शिवपद महान । ज्यो शशि किरणावलि सियर पाय,मरिण चंद्रकाति द्रवतालहाय खापत
पप्तमी धत्तानन्द छन्द ।
पूजा जव भव-भयहारं, बन्धविडारं, सुख सारं शिव करतारं ।
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