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सिद्ध
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नित " सन्त" सु ध्यावत, पाप नसावत, पावत पद निज श्रविकारं ॥ ह्री दादशाविकपच शतदलोपरिस्थित सिद्ध ेभ्यो नम पूर्णाय । सोरठा -- तुम गुण अमल अपार, अनुभवते भव भय नशै । "सन्त" सदा चित धार, शांति करो भवतप हरो ॥
इत्याशीर्वादः ।
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यहाँ ओ ही असि श्रा उसा नम १०८ बार जपना चाहिये । इति सप्तमी पूजा समाप्त ।
अथ अष्टमी पूजा १०२४ गुगा सहित
(छप्पय छन्द ) - ऊरध अधो सुरेफ सु बिन्दु हकार विराज, अकारादि स्वरलिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिधर,
अग्र भागमे सन्त्र अनाहत सोहत प्रतिवर ॥ पुनि अन्त हों बेढ्यो परम पद, सुर ध्यावत अरि नागको,
ग्रष्टम
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