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धन सुवर्ण लोकमें, पूरण इच्छा होय ।
सिद्ध० चक्रवर्ती पद पाइये, तुम पूजत है सोय ॥ ॐ ह्री ग्रह रैंदपूर्णमनोरथाय नमः | २५५ तुम आज्ञा में हैं सदा, श्राप मनोरथ मान ।
विः २६२
इद्रसदा सेवन करै, पाप विनाशक जान ॥ ॐ ह्री ग्रह आज्ञार्थीन्द्रकृत सेवाय नमः श्रयं। सब देवनमे श्रेष्ठ हो, सब देवन सिरताज ।
सब देवन के इष्टहो, बंदत सुलभ सुकाज ॥ॐ ह्री महं देवश्रेष्ठायनमःश्रयं । । २५७।। तीन लोक उच्च हो, तीन लोक परशंस ।
सो शिवगति पायोप्रभू, जजत कर्मविध्वंस ॥ॐ ह्रीग्रशिबौद्यमानायनम श्रर्घ्यं । २५८। 'जगत्पूज्य शिवनाथ हो, तुम ही द्रव्य विशिष्ट ।
हित उपदेशक परमगुरू, मुनिजनमाने इष्ट ॥ ॐही मर्हं जगत्पूज्यशिवनाथनम ग्नर्घ्यं । मति श्रुतवधि, अवर्णको, नाश कियो स्वयमेव ।
केवलज्ञान स्वतै लियो, श्राप स्वयंभू देव ॥ ॐ ह्रो नहं स्वयभुवे नम' प्रर्घ्यं ।। २६० ।। समोसरण अद्भुत महा, श्रौर लहै नहीं कोय | धनपति रचो उछाहसों, मैं पूजू हू सोय ॥ ॐ ह्रीं ग्रहं कुवेररचितस्थानाय नमः म्रयं ।
अष्टम
पूजा
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