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रत्नत्रय मग साधकर, सिद्ध भये भगवान । सिद्ध पुरण निजसुखधरतहै, निजमें निजपरिणामह्री ग्रह जिनघोर्याय नम'मध्य ३७६
तीन लोकके नाथ हो, ज्यू तारागण सूर्य। २६१६ शिवसुखपायो परमपद, बंदी श्रीजिन धूयं ॥ॐ ह्री व्ह जिमघूर्याय नम प्रध्यं ॥३८॥
पराधीन बिन परम पद, तुम बिन लहै न और। उत्तमातमामै नम,तीन लोक शिरमौर ॥ ॐ ह्रीप्रहं जिनोत्तमाय नम प्रय॑ ।।३।। जहा न दुखको लेश है, तहाँ न परसो कार।
तुमविन कहूँ न श्रेष्ठता,तीन लोक दुखटार॥ ही अहत्रिलोकदु खनिवारणायनम अध्य । पूर्ण रूप निज लक्ष्मी, पाई श्री जिनराज ।
परमश्रेय परमातमा,बंदू शिवसुख साज ॥ॐ ह्रीं अहं जिनवराय नम अयं ।।४।। ६ निरभय हो निर प्राश्रयी, निःसंगी निबंध ।
प्रष्ट निजसाधन साधक सुगुन, परसो नहिं संबंध ॥ॐ ह्रीं अहं जिननि.सगाय ।माप्रय ४० पूजा अन्तराय विधि नाशक, निजानन्द भयो प्राप्त ।
२६१ त ह्रीं मह जिनोद्वाहायनम अध्य ||४|
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