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शिवमारग में धरत हो, जग मारगर्ते काढ़। सिद्ध० धर्मधुरन्धर मैं नमू, पाऊंभव वन बाढ़ ॥ ॐ ह्रीं अहं जिनवृषभाय नम.प्रयं ॥४४॥
धर्मनाथ धर्मेश हो, धर्म तीर्थ करतार। २६२ रहो सथिर निज धर्म मे, मै बंदू सुखकार ॥ ह्री अहं जिनधर्माय नमःमध्यं ॥४५॥
जगत जीव विधि धूलि सो, लिप्त न लहै प्रभाव। रत्नराशिसमतुमदिपो,निर्मल सहज सुभाव ॥ॐही अहं जिनरत्नायनम अयं ॥४॥ तीन लोकके शिखर पर, राजत हो विख्यात । तुमसम और न जगतमे, बड़ा कोई दिखलात॥ॐ ह्रीं महंगिनोरमायनम मध्यं ।।४।। इन्द्रिय मन व्यापार बहु, मोह शत्रु को जीत।
ॐ ह्री अहं जिनेशाय नम अध्यं ॥४८॥ चारि घातिया कर्मको, नाश कियो जिनराय। घातिप्रघाति विनाश जिन, अग्रभयेसुखदाय ॥ॐ ह्रीं अर्हजिनाग्रायनम अध्य।।४६॥ पूजा निज पौरुषकर साधियो, निज पुरुषारथ सार। अन्य सहाय नहीं चहै, सिद्ध सुवीर्य अपार ॥ॐ ह्रीं प्रहं जिनभादू लाय नम अध्यं ।५।।
अष्टम