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। भवि-जीव सदा यह रीति धरे, नित नूतन पये विभाव ध.. तिस कारणको सब व्याधि दहो, तुम पाइ सुरूप जु अन्त न हो ॥२२१॥
ॐ ह्री निरवधिस्वरूपाय नम. अयं । अवधि मनःपर्यय सु ज्ञान महा, द्रव्यादि विषै मरजाद लहा। तुम ताहि उलंघ सुभावमई, निजबोध लहो जिस अन्त नहीं ॥२२२॥
ॐ ह्री अतुलज्ञानाय नमः अध्यं ।। । तिहुँ काल तिहूँ जगके सुखको, कर वार अनंत गुणा इनको। । तुम एक समय सुखको समता, नहीं पाय नमूमन आनंदता ॥२२३॥
__ॐ ह्री अतुलसुखाय नमः अयं । । नाराच छन्द--सर्व जीव राशके सुभाव आप जान हो,
आपके सुभाव अंश औरको न ज्ञान हो। सो विशुद्ध भाव पाय जासको न अन्त हो,
राज हो सदीव देव चरण दास 'संत' हो ॥२२४॥ पष्ठम ॐ ह्री अतुलभावाय नम अध्यं । आपकी गुणौघ वेलि फैलि है अलोकलों,
पूजा
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