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सिद्ध वि०
श्रीकहिये प्रातम विभव, ताकरि हो शुभ नीक। सोहत सुन्दर वदनकरि,सज्जनचित रमणीक॥ ॐ ह्रीग्रह श्रीवत्सलाछनाय नमः । सर्वोत्तम अतिश्रेष्ठ है, जिन सन्मति थुति योग। धर्म मोक्ष मारग कहै, पूजत सज्जन लोग ॥ ॐ ह्री अह श्रीमतये नम अयं ।।७३२॥ अविनाशी अविकार है, नहीं चिगे निज भाव। स्वयं सुबाश्रय रहत है, मै पूजू धर चाव॥ॐ ह्रीमह अच्युताय नम.अयं 1७३३॥ नाशी लौकिक कामना, निर इच्छुक योगीश। नार श्रृंगार न मन बसै, बंदत हूं लोकोश ॥ ह्रींअहं नरकान्तकाय नम अध्यं ।७३४ व्यापक लोकालोक मे, विष्णु रूप भगवान। धर्मरूप तरलहि लहै, पूजत हूँ धर ध्यान॥ॐ ह्री अहं विश्वसेनाय नमःमय ।७३५॥ धर्म चक्र सन्मुख चले, मिथ्यामति रिपुघात।
अष्टम तीन लोक नायक प्रभू, पूजत हूँ दिनरात॥ॐ ह्रीं अह चक्रपाणये नम.प्रयं ।७३६। पूजा सुभग सुरूपी श्रेष्ठ अति, जन्म धर्म अवतार। तीन लोककी लक्षमी, है एकत्र उधार ॥ॐ ह्री अहं पद्मनाभाय नम अध्या७३७। .