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सिद्ध
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वि.
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जय धर्म भर्म वन हन कुठार, परकाश पुंज चिद्रूपसार । उपकरण हरण दव सलिलधार, निज शक्ति प्रभाव उदय अपार ॥ नभ सीम नहीं अरु होत होउ, नहीं काल अन्त लहो अन्त सोउ। पर तुम गुरण रास अनंत भाग, अक्षय विधि राजत अवधि त्याग॥६॥ प्रानन्द जलधि धारा प्रवाह, विज्ञानसुरी मुखद्रह अथाह । निज शांति सुधारस परम खान, समभाव बीज उत्पत्ति थान ॥७॥ निज प्रात्मलीन विकलप विनाश, शुद्धोपयोग परिणति प्रकाश । हग ज्ञान असाधारण स्वभाव, स्पर्श आदि परगुरण अभाव ॥८॥ निज गुरणपर्यय समुदाय स्वामि, पायो अखण्ड पद परम धाम । अव्यय अबाध पद स्वयं सिद्ध, उपलब्धि रूप धर्मी प्रसिद्ध ॥६॥ एकाग्ररूप चिन्ता निरोध, जे ध्यावै पावै स्वयं बोध । गुण मात्र 'संत' अनुराग रूप, यह भाव देहु तुम पद अनूप ॥१०॥ दोहा--सिद्ध सुगुण सुमरण महा, मंत्रराज है सार।
सर्व सिद्ध दातार है, सर्व विघन हर्तार ॥११॥
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षष्ठम् पूजा