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सिद्ध०
वि०
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जो तुम धर्म प्रकट करि, जिय श्रानन्दित होय ।
भये कल्यान कर, तुम पद प्ररणम् सोय ॥ॐ ह्रीं श्रीं प्रप्रण्ये नम प्रध्यं । ४५८ रक्षा करि षट कायकी, विषय कषाय न लेश ।
त्रास हरी जमराजको, जयवन्तो गुरण शेष ॥ ॐ ह्री प्रह् दयामूर्तये नमःश्रर्घ्यं४५। सत्य श्रसत्य लखना करें, सोई नेत्र कहाय ।
पुद्गल नेत्र न नेत्र हो, सांचे नेत्र सुखाय ॥ॐ ह्री श्रीँ दिव्यनेश्राय नम ग्रर्घ्यं।४६०॥ सुरनर मुनि तुम ज्ञानतै, जानै निज कल्याण ।
ईश्वर हो सब जगतके, श्रानंद संपति खान ॥ ॐ ह्रीग्रहं अधीश्वरायनमःश्रघ्यं । ४६१ धर्माभास मनोक्तके, मूल नाश कर दीन ।
सत्य मार्ग बतलाइयो, कियो भव्य सुख लीन ॥ ही अहं धम्मँनायकाय नमः अयं ऋद्धिनमें परसिद्ध है, केवल ऋद्धि महान ।
सो तुम पायो सहज ही, योगीश्वर मुनि मान ॥ ॐ ह्रीमहंऋद्धीणाय नमःप्रर्घ्यं ४६३ जो प्रारणी संसारमे, तिन सबके हितकार । श्रानंदसों सब नमत है, पावै भवदधि पार ॥ ह्रौं श्रहं भूतनाथाय नमः श्रध्यं ॥४६४॥
अष्टम
पूजा
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