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दिव्य अक्षर ध्वनि खिरै, सर्व अर्थ गुरणधार ।
सिद्ध०
भविजन मन संशय हरन, शुद्ध बोध प्राधार ॥ॐ ह्रीप्रर्हद्विव्यवादायनम ग्रर्घ्यं । ६६८। वि०नहीं पार जा वीर्यको स्वाभाविक निरधार ।
३५१ सो सहजै गुण धरत हो, नमूं लहूँ भनपार ॥ ह्रीय प्रनन्त्रवीर्याय नम प्रर्घ्यं६६९ पुरुषोत्तम परधान हो, परम निजानंद धाम ।
चक्रपती हरिबल नमे, मै पूजूं निष्काम ही ग्रह महापुरुषदेवाय नम अर्घ्यं । ६७० । शुभ विधि सब आचरण हैं, सर्व जीव हितकार ।
श्रेष्ठ बुद्ध प्रति शुद्ध है, नमू करो भवपार ॥ॐ ह्री ग्रहं सुविधये नमोऽर्घ्यं ।।६७१।। है प्रमाण करि सिद्ध जे, ते हैं बुद्धि प्रमारण ।
सो विशुद्धमय रूप है, संशय तुमको भान ॥ॐ होमप्रज्ञापरिमाणाय नम' अर्घ्यं ६७२ समय प्रमाण निमित तनी, कभी अन्त नहीं होय ।
अविनाशी थर पद धरै, मैं प्रणम् हूँ सोय ॥ही हं श्रव्ययाय नम अर्घ्यं । ६७३। प्रतिपालक जगदीश है, सर्वमान परमान । श्रधिकशिरोमणिलोकगुरु, पूजतनितकल्यारण ॥ ॐह्री मर्हं पुराणपुरपाय नम प्रध्यें
अष्टम
पूजा
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