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________________ लोकालोक विलोकियो, संशय विन इकवार । सिद्धः खेद रहित निश्चल सुखी, स्वच्छ पारसी सार॥ह्री महलोपालोकज्ञायनम अध्य। निरावर्ण स्वै गुण सहित, निजानन्द रस भोग । ३९६ अव्यय अविनाशीसदा,अजरअमर शुभयोग ॥ॐहीमह निगवरणायनम प्रध्यं १ ००७ परम मुनीश्वर ध्यान धर, पावै निजपद सार । ज्यों रविबिंब प्रकाशकर,घटपटसहज निहार ॥ॐ ह्रीअर्हध्येयगुणाय नम.प्रयं १०००६ कवलाहारी कहत हैं, महा मूढ़ मतिमंद । प्रशन असाता पीरविन,पाप भये सुखकंद ह्रीमहंअनशनदग्धायनमःमध्यं। १.०६१ लोक शीश छवि देत हो, घरो प्रकाश अनूप। बुधजन आदर जोग हो,सहज अकम्प सरूप ॥ ह्रीमहं त्रिलोकमणयेनम अध्यं १०१.४ ६ महा गुणन की रास हो, लोकालोक प्रजन्त । । सुर मुनि पार न पावते,तुम्है नमै नित संत ॥ॐ ह्रीमहंमनतगुणप्राप्ताय नम अयं । अष्टम । परम सु गुरण परिपूर्ण हो, मलिन भाव नहीं लेश । पूजा जगजीवन आराध्य हो,हम तुम यही विशेष ॥ॐही अहं परमात्मने नमःप्रध्या १०१२ ३ ... ३६६
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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