SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध सहज निरामय भेद विन, निराबाध निस्संग। एक रूप सामान्य हो,निज विशेष मई अंग ॥ ह्रीमहनिर्द्वन्दाय नम.अयं IIEEEII वि० जे अविभाग प्रछेद हैं, इक गुणके सु अनत । ३६८ तुममें पूरण गुरण सही, धरो अनंतानन्त ॥ह्रीमहंप्रनतानतगुणायनम अध्यं १००० पर मिलाप नहीं लेश है, स्वप्रदेशमय रूप।। क्षयोपशम ज्ञानी तुम्हें, जानत नहीं स्वरूप॥ॐ ह्रीमहं प्रात्मरूपाय नम प्रध्या १००१। क्षमा प्रात्मको भाव है, क्रोध कर्मसों घात । सो तुम कर्म खिपाइयो, क्षमा सु भाव धरात॥ ह्रीमह महाक्षमायनम प्रध्य १००२६ शील सुभाव सु प्रात्मको, क्षोभ रहित सुखदाय। निर प्राकलता धार है, बंदू तिनके पाय॥ॐ ह्रीमहमहाशीलाय नम प्रध्यं । १००३।। शशि स्वभाव ज्यों शांति धर, और न शांति धराय । अष्टम श्राप शांतिपर शांतिकर, भवदुख दाह मिटाय॥हीप्रहमहाशातायनम मज़१००४ पूजा तुम सम को बलवान है, जीत्यो मोह प्रचंड । धरोअनंत स्व वीर्यको,निजपद सुथिर अखंड॥ ह्रीमह मनतवीर्यात्मकायनम. मध्यं। SV ६.३६०
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy