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प्रोकार यह मंत्र है, तीन लोक परसिद्ध । सिद्ध तुम साधक कहलात हो, जपत मिलै नवनिद्ध ॥ ह्रीमह मिद्धमत्रायनम अयं ३८१ वि०६ सिद्ध यज्ञको कहत है, संशय विभम नाश । १ मोक्षमार्ग मेले धरै, निजानन्द परकाश ॥ॐ ह्रीमहं सिद्धवाचे नम प्रध्य ॥३८२।।
मोहरूप मलसो दुरी, वाणी कही पवित्र । १ भब्य स्वच्छता धारिके, लहै मोक्षपद तत्र ॥ ह्री प्रहं शुचिवाचे नम अध्यं ।३८३।।
कर्ण विषयमें होत ही, करै आत्म-कल्याण । इतुम वारणी शुचिताधरै, नमे संत धरि ध्यान॥ ह्रीग्रह शुचि प्रवसे नम अयं ।३८४ १ वचन अगोचर पद धरो, कहते पंडित लोग।
तुम महिमा तुमहीं विषै, सदा बंदने योग्य ॥ ह्रींग्रह निशक्तोक्ताय नम.अयं ।३८५ सुरनर माने आन सब, तुम आज्ञा शिर धार। इ मानो तत्र विधान करि, बांधे एक लगार॥ॐ ह्री अहं तत्रकृते नम अयं । ३८६।। ६ जाकरि निश्चय कीजिए, वस्तु प्रमेय अपार ।
सो तुमसे परकट भयो, न्यायशास्त्र रुचि धार॥ह्री ग्रह न्यायशास्त्रकृते नम अर्पा
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अष्टम
पूजा
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