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सिद्ध
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गुरण अनन्त पर्याय युत, द्रव्य अनन्तानन्त ।
युगपति जानो श्रेष्ठ युत, धरो महा सुखवत ॥ ह्री ग्रह्णे महाज्येष्ठायनम ग्रर्घ्यं ३८८। तम पद पावै सो महा, तुम गुरण पार लहाय ।
शिवलक्ष्मी के नाथ हो, पूजूं तिनके पाय ॥ॐ ह्री प्रर्हं महानन्दाय नम. ग्रर्थ्यं । ३८६। तुम सम कविवर जगत मे, और न दूजो कोय |
गरणधर से श्रुतकार भी, अर्थ लहैं नहीं सोय ॥ॐ ह्रीं ग्रहँ कर्वोन्द्राय नम अर्घ्यं ॥३१० हित करता षट् कायके, महा इष्ट तुम बैन ।
तुमको बंदू भावसो, मोक्ष महासुख देन ॥ ॐ ही मीं महेष्टाय नम प्रध्र्घ्यं ।।३११। मोक्ष दान दातार हो, तुम सम कौन महान ।
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तीन लोक तुमको जजै, मनमें आनंद ठान ॥ ह्री ग्रर्ह महृनददाश्र्नम प्रध्ये।३६२। द्वादशांग श्रुतको रच, गरणधर से कविराज ।
प्रष्टम
तुम श्राज्ञा शिर धारके, नमू निजातम काज ॥ॐ ह्रीं श्रीँकवीश्वराय नम श्रध्यं ३१३ पूजा देव महा ध्वनि करत हैं, तुम सन्मुख धर भाव ।
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केवल अतिशय कहत है, मैं पूजू युतचाव ॥ॐ ह्रीं श्रदु दुमीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥३१४