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तुम हो वीतराग निज पूजन, बन्दन थुति परवाह नहीं है। सिद्ध अरु अपने समभाव वह कछु, पूजा फलकी चाह नहीं है। वि० तौभी यह फल पूजि फलद, अनिवार निजानन्द कर इच्छामी। १५५ द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥८॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहण अगल घुमवावाह मोक्षफलप्राप्तये फल नि०। तुमसे स्वामीके पद सेवत, यह विधि दुष्ट रंक कहा कर है। ज्यो मयूरध्वनि सुनि अहि निज बिल, विलय जाय छिन बिलम न धर है।। तातै तुम पद अर्घ उतारण, विरद उचारण करहुँ मुदामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥६॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव सप्तमी अवग्गहण अगुरुलघुमन्वावाह सर्वसुखप्राप्तये अध्यं नि।
पूजा गीता छन्द-निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी।
शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वादसुविधि घनी॥ १५५ वर दीपमाल उजाल धूपायन, रसायन फल भलै।
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