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कर्म रहित शुद्धात्मा, निश्चल क्रिया रहात ।
स्वप्रदेश मय थिर सदा,कृत्याकृत्य सुख पात ॥ॐ ह्रीहनिष्कर्मशुद्धात्मजिनायनम प्रय ME विद्यमान प्रत्यक्ष है, चेतनराय प्रकाश ।
कर्म कालिमासो रहित, पूजतहो अघनाश ॥ ह्रीग्रहं भूताभिव्यक्तचेतनाय नम अध्यं | गृहस्थाचरण सुभेद करि, धर्मरूप रसरास । एकतुम्हीं हो धर्मकरि, पायो शिवपुर वास॥ह्रौंग्रह धर्मरासजिनायनमःअध्यक्ष१. 1 सूर्यप्रकाशन मोह तम, हरता हो शुभ पंथ । पाप क्रिया विन राजते, महायती निरग्रंथ॥ होगह परमह साय नमःमध्यं ।९११॥ । बन्ध रहित सर्वस्व करि, निर्मल हो निर्लेप ।
शुद्ध सुवर्ण दिपै सदा, नहीं मोह मल लेप ॥ ह्रीं अहं परमसवरायनम प्रध्यं ।९१२६ मेघ पटल विन सूर्य जिम, दीप्त अनन्त प्रताप ।
अष्टम निरावरण तुम शुद्ध हो,पूजत मिटि है पापहीग्रह निरावरणाय नम अध्यं ६१३ पूजा कर्म अंश सब झर गिरे, रहो न एक लगार। परम शुद्धता धारक, तिष्ठो हो अविकार ॥ॐह्री प्रहंपरमनिरायनम.अर्घ्य 1९१४
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