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ॐ ह्री पचेन्द्रिय जातिरहिताय नम अध्यं । सिद्ध० छंदलावनी-हो उदार जो प्रगट उदारिक, नाम कर्मकी प्रकृति भनी,
लहै औदारिक देह जीव तिस, कर्म प्रकृतिके उदय तनी। भये अकाय अमूरति आनंद,-पुंज चिदातम ज्योति बनी, नमूतुम्हे कर जोरयुगलतुम सकल रोगथल काय हनी॥६४।
ॐ ह्री औदारिकशरीरविमुक्ताय नम अध्यं । निज शरीरको अरिणमादिक करि, बहु प्रकार प्रणमाय वरे, वैक्रिय तन कहलावे है यह, देव नारकी मूल धरे। भए अकाय अमूरति आनन्द,-पुंज चिदातम ज्योति धनी, नमूतुम्है करजोरयुगलतुम, सकल रोगथलकायहनी॥६५॥
___ ही वैक्रियिकशरीरविमुक्ताय नम अयं । धवल वर्ण शुभ योगी संशय-हरण आहारकका पुतला, षष्ठम मो-प्रमत्त गुरणथानक मुनिके, देह औदारिकसो निकला। पूजा
भए अकाय० ॥नमूतुम्है० ॥६६॥