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ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४३॥
ॐ ह्री यश प्रकृतिछेदकाय नम अध्यं । जासु गुरगनको औगुरण कर सब ही ग्रहै। करत काज परशंसित पण निंदित कहै ॥ अपयश प्रकृति विनाश मुभावी यश लहो । ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४४॥
* ह्री अपयशानामकमरहिताय नम अध्यं ।। योग थान नेत्रादिक ज्योके त्यों बनों। रचित चतुर कारीगर करते है तनो। यह निर्माण विनाश सुभावी पद लहो, ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४॥ ॐ ह्री निर्माणनामकर्मरहिताय नय अध्यं । पंचकल्याणक चोतिस अतिशय राज ही, प्रातिहार्य अठ समोसरण युति छाज ही।
षष्ठम पूजा
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