________________
लौकिक जन या लोकमें, तुम सारू गुरण नाहिं ।
केवल तुमही में बसै, मैं बंदू हूँ ताहि ॥ ॐ ह्री ग्रहँ केवलानोकाय नम'नर्घ्यं ।।१७८।: लोक अनन्त कहो सही, तातेंऽनन्तानन्त ।
सिद्ध० हैलो अवलोकियो, तुम्हें नमें नित सत ॥ॐ ह्री प्रहुँलोकालोकावलोकायनम‘प्रर्घ्यं ज्ञान द्वार निज शक्ति हो, फैलो लोकालोक ।
वि०
२८१
भिन्नभिन्न सब जानियों, नमूं चररण दे धोक ॥ ह्रीं श्रीं विवृनाय नम ग्रध्र्यं । १८०) विन सहाय निज शक्ति हो, प्रकटो आपोआप ।
स्वय बुद्ध स्व सिद्धहो, नमत नसे सब पाप ॥ ॐ ह्री ग्रहं केवलावलोकायनम म्रर्घ्यं । १८१ सूक्ष्म सुभग सुभावतें, मन इन्द्रिय नहिं ज्ञात ।
वचन अगोचर गुरण धरै, नमूं चरन दिन रात ॥ॐ ह्रीमव्यक्तायनम अर्घ्यं । १८२ कर्म उदय दुख भोगवे, सर्व जीव संसार ।
-
प्रष्टम
तिन सबको तुमही शरण, देहो सुक्ख श्रपार ॥ॐ ह्रीप्रर्हं सर्वशरणायनम।अर्घ्यं। १८३ पूजा चितवनमें वे नहीं, पार न पावे कोय | महाविभवके हो धनी, नमूं जोर कर दोयं ॥ॐ ह्रीं यह प्रवित्य विभवाय नमःप्रर्घ्यं ।
२८१