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सकल गुणनमय द्रव्य हो, शुद्ध सुभाव प्रकाश । सिद्धः तुम समान नहीं दूसरो, बन्दत पूरै पास ॥ह्रीं प्रहं ममग्रद्धये नम अध्यं ।।१६४॥ वि० सर्व कर्मको छीन करि, जरी जेवरी सार। २७६ । सो तुम धूलि उडाइयो, बंदू भक्ति विचार ॥ ह्रीं ग्रह कमक्षीणायनम अयं। १६५
चहुँ गति जगत कहात हैं, ताको करि विध्वंश । । अमरअचल शिवपुर वस,भर्म न राखो अंश ॥ ह्रीं अहंजगद्विध्वसिनेनम अयं १६६, ॥ इन्द्री मन व्यापार में, जाको नहिं अधिकार। सोअलक्ष प्रातम प्रभू, होउ सुमति दातार ॥ह्रीं हूँ प्रलक्षात्मने नम प्रध्यं । १६७ ६
नहीं चलाचल अचल है, नहीं भमरण थिर धार । है सोशिवपुरमे वसत हैं, बंदू भक्ति विचार ।।ॐ ह्रीं अहंप्रचलस्थानायनम अध्य।१६८ पर कृत निमत बिगाड है, सोई दुविधा जान । सो तुममें नहीं लेश है, निराबाध परणाम ॥ॐ ह्रीं मह निराबाधायनम अध्यं १६॥ पूजा जैसे हो तुम प्रादिमें, सोई हो तुम अन्त । एक भांति निवसो सदा, बंदत है नित संत ॥ॐ ह्रीं अहं प्रप्रताय नमःप्रयं ।१७०।
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