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शरणं चरणं वरणं करणं, धरणं चरणं मरणं हरणं ।
तरनं भव वारिधि तारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारण हो ॥६॥ - भववास-त्रास विनाशन हो, दुखरास विनास हुताशन हो।
निज दासन त्रास निवारन हो सब सिद्ध नमों सुखकारन हो ॥७॥ तुम ध्यावत शाश्वत व्याधि दहै, तुम पूजत ही पद पूजि लहै। शरणागत संत उभारन हो, सब सिद्ध नमो सुखकारण हो ॥८॥ दोहा-सिद्धवर्ग गुरण अगम है, शेष न पावै पार।
हम किंह विधि वरणन करै, भक्ति भाव उर धार ॥६॥ ह्री अनन्तदर्शनज्ञानादिषोडश-गुण युक्त-सिद्धेभ्यो महाय नि० । इति द्वितीय पूजा सम्पूर्णम् ।
अथ तृतीय पूजा बत्तीस गुणासहित छप्पय छन्द--ऊरध अधो सरेफ बिन्दु हंकार बिराजै,
अकारादि स्वर लिप्तकरिणका अंत सु छाजै । वर्गनिपूरित वसुदल अम्जुजतत्व संधिधर, अग्रभाग में मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥
प्रथम
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