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सामान्यरूप सबब्रह्मकहावैज्ञानी, तिनमें तुम वृषभ सुपरम ब्रह्मपरणामी निजरूप० ॐ ह्री साधुपरब्रह्मणे नम अघ्यं । ४८१ ॥
सिद्ध०
• सापेक्षएक ही कहै सु नय विस्तारा, तुमभाव प्रकटकर क है सुनिश्चैकारा निजरूप० ॐ ह्री साधुपरमस्याद्वादाय नम अर्घ्यं ॥ ४३२ ॥
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हैज्ञाननिमित यहवचनजाल परमारणा, है वाचकवाच्य संयोगब्रह्म कहलान श्री ही साधुशुद्धब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥ ४६३ ||
निजरूप
षट्द्रव्य निरूपण करैसोई ग्रागम हो, तिसके तुम मूलनिधान सुपरमागमहो
निजरूप
ओ ही साधुपरमागमाय नम अर्घ्यं ॥ ४८४ ॥ तीर्थेश कहै सर्वज्ञदिव्यधुनिमाहीं, तुम गुरण अपारइमकहो जिनागम ताही ही माघुजिनागमाय नम अर्घ्यं ॥ ४८५ ॥
निजरूप०
तुमनाम प्रसिद्ध अनेक अर्थका वाची, ताके प्रबोधसोंहोप्रतीत मनसांची
निजरूप०
श्री ही साघुप्रनेकार्थाय नम अर्घ्यं ||४८६ ॥
लोभादिक मेटै विन न शौचता होई, है बृथा तीर्थ-स्नान करो भी कोई श्री ही साघुशौचाय नम अर्घ्यं ॥ ४८७ |
निजरूप०
हेमिथ्या मोहप्रबलमलइन काखोना, सोशुद्धशौचगुणयही न तनका धोना ह्री साधुशुचित्वगुणाय नमः श्रीं ||४८६ ॥
निजरूप०
सप्तमी
पूजा
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