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सिद्ध० वि०
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निजकर निजमे वास, सर्व लोकसो भिन्नता ।
पायो शिव सुख रास, नमत, सदा भव भय हरू ॥२५३॥ ॐ ह्री लोकाग्रस्थिताय नमः अध्यं ।
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ज्ञान - भानकी जोति, व्यापक लोकालोकमे ।
दर्शन विन उद्योग, नमत सदा भव भय हरू ॥२५४॥ ॐ ह्री लोकालोक व्यापकाय नम अर्घ्यं ।
जो कुछ धरत विशेष, सब ही सब प्रानन्दमय ।
लेश न भाव कलेश, नमूं सदा भव भय हरू ॥२५५॥
ॐ ह्री आनन्द विधानाय नमः श्रध्यं ।
जिस श्रानन्दको पार, पावत नहिं यह जगतजन ।
सो पायो हितकार, नमत सदा भव भय हरू ॥२५६॥
दोहा -- इत्यादिक श्रानन्द गुरण, धारत सिद्ध अनन्त । तिन पद आठो दरवसों, पूजत हो निज सन्त ॥ ॐ ह्री आनन्द पूर्णाय नमः अयं ।
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पूजा
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