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संवर धर्मतनी शिव पावहि, संवर धरम तहाँ दरशावहि ॥सूरि०॥
ॐ ह्री सूरिसवरधर्माय नम अयं ॥२८॥ दोहा-- एक देश वा सर्व विधि, दोनों मुक्ति स्वरूप । नमनिरजरा तत्त्वसो, पायो सिद्ध अनूप ॥२८६॥
ॐ ह्री सूरिनिर्जरातत्त्वाय नम. अयं । शुद्ध सुभाव जहाँ तहाँ, कहो कर्मको नाश । एम निरजरा तत्त्वका, रूप कियो परकाश ॥२८७॥
__ॐ ह्री सूरिनिर्जरातत्त्वस्वरूपाय नम अर्घ्य । कोटि जन्मके विघन सब, सूखे तुरण सम जान । दहे निर्जरा अग्निसो, इह गुण है परधान ॥२८॥
ॐ ह्री सूरिनिजरागुणस्वरूपाय नम अध्यं । निज बल कर्म खपाइये, कहो निर्जरा धर्म । धर्मी सोई प्रात्मा, एक हि रूप सुपर्म ॥२६॥
ॐ ह्री सूरिनिर्जराषमस्वरूपाय नमः अध्यं ।
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षष्ठम्
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