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हुत्वा स्वमप्यगुरुभि सुरभीकृताशे-रग्नौ समुच्छलित-सभृत-वृन्द-धूपै । सधूपयामि चरण शरण शरण्य, पुण्य भव-भ्रमहरैर्गणिनाम् मुनीनाम् ॥५।।
ॐ ह्री आचार्य परमेष्ठिने नम धूपम् ।। सधूपिताखिल-दिशोघनशङ्कयेह, वहिव्रज स्वनटनादिव नर्तयद्भि । मृद्वग्निसगतिततागुरुधूपघूमै श्री पाठक क्रमयुग वयमाह्वयाम ॥६॥ _ॐ ह्री उपाध्यायपरमेष्ठिने नम. धूपम् ।। स्वमग्नौ विनिक्षिप्य दौगंध्यबधम्, दशाशास्यमुच्चै करोति त्रिसध्यम् । तदुद्दामकृष्णागुरुद्रव्यधूपै , यजे साधुसघ नटव्यक्त-रूपै ।।७।।
ॐ ह्री साधुपरमेष्ठिने नम धूपम् । धूपै सधूपितानेक-कर्मभिधूप-दायिन वृषभादि-जिनाधीशान, वर्द्धमानान्तकान्यजे ॥८॥
ॐ ह्री वृपभादिवीरान्त चतुर्विंशतिजिनेभ्यो नम धूपम् । । इसके पश्चात् जिस मन्त्र की जितनी जाप की है उसके दशमाश उस मन्त्र की आहूति देनी । ६ चाहिये। तत्पश्चात निम्न शान्तिकरण पढे।
शान्तिधारा आचार्य अपने हाथमे कलश लेकर जलकी धारा देता हुआ नीचे लिखा पुण्याहवाचन पढे-" __ॐ पुण्याह पुण्याह लोकोद्योतनकरा अतीत-काल-सजाता निर्वाण-सागर-महासाधु-विमल- २६ प्रभ-शुद्धाभ-श्रीधर-सुदत्त-अमलप्रभ-उद्धर-अग्नि-सन्मति-शिव-कसमाजलि-शिवगण-उत्साहज्ञानेश्वर-परमेश्वर-विमलेश्वर-यशोधर-कृष्णमति-ज्ञानमति-शुद्धमति-श्रीभद्र-शाताश्चेति चतुविशति-भूत-परमदेवाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् ॥ धारा ॥१॥