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सिद्ध वि०
अर्द्ध पद्धडी। संरम्भ चाह नहिं काययोग, चित परिणति नमि शुद्धोपयोग ॥१२१॥
ॐ ह्री अकृतकायलोभसरम्भपरमचित्परिणताय नम अध्यं । ८४ संरम्भ अकारित लोभदेह । निज प्रातम रत स्वसमेय तेह ॥१२२॥
___०ह्री अकारितकायलोभसरम्भ-स्वसमयरताय नमः अध्यं । संरम्भ लोभ तन हर्ष नाश।नमि व्यक्त धर्म केवल प्रकाश ॥१२३॥
ॐ ह्री नानुमोदितकायलोभसरम्भ-व्यक्तधर्माय नम अध्यं । सोरठा-लोभी योग शरीर, समारम्भ विधि नाशके ।
धू व प्रानन्द अतीव, पायो पूजू सिद्धपद ॥१२४॥
* ह्री प्रकृतकायलोभसमारम्भ-नित्यसुखाय नमः मध्य । लोभ प्रकारित काय, समारम्भ निज कर्म हनि । पायो पद अकषाय, सिद्ध वर्ग पूजू सदा ॥१२॥
ॐ ह्री अकारितकायलोभसमारम्भ-प्रकषायाय नम. मध्यं । पूर्ववर्तनानन्द, परिग्रह इच्छा मेटिकें। पायो शौच स्वछन्द, नमू सिद्ध पद भक्ति युत ॥१२६॥
पचम
पूजा
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