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सूरज सम अग्रेश हो, निज-पर- भासनहार । आप तिरे भवि तारियो, बंदू योग संभार ॥ ही ग्रह जिनाग्राय नमः प्रष्ये ।। ६५ ।। वि०रागादिक रिपु जीत तुम, श्री जिन नाम धराय ।
२६५ सिद्ध भये कर जोरिके, बंदू तिनके पाय ॥ ह्रीं श्रीं श्रीजिनाय नम ग्रव्यं ॥६६॥ विषय कषाय न लेश है, दृष्टि ज्ञान परिपूर्ण ।
उत्तमजिन शिवपदलियो, नमतकर्मको चूर्ण ॥ॐ ह्रीं प्रजिनोत्तमायनम श्रध्यं । ६७॥
सिद्ध
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चहुँ प्रकार के देवता, नित्य नमावत शीश ।
तुम देवनके देव हो, नमू सिद्ध जगदीश ॥ ॐ ह्रीं जिनवृन्दारकाय नम ग्रध्र्घ्यं |६८| जो निज सुख होने न दे, सो सत रिपु है जोय ।
ऐसे रिपुको जीतके, नमू सिद्ध जो होय ॥ॐ ही प्रर्ह प्ररिजिताय नम श्रर्घ्यं ।।६६।। अविनाशी अविकार हो, अचलरूप विख्यात ।
जामे विघ्न न लेश है, नमू सिद्ध कहलात ॥ॐ ह्रीं ग्रह निविघ्नाय नम प्रध्यं ॥ ७० ॥ रागदोष मद मोह अरु, ज्ञानावरण नशाय ।
शुद्ध निरंजन सिद्ध है, बंदू तिनके पाय ॥ ॐ ह्रीं ग्रह विरजसे नम. मध्यं ।।७१।।
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प्रण्टम
पूजा
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