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श्री सिद्धचक्र विधान का महत्व एवं उसकी विधि
जैनो की आवश्यक क्रियानो मे देव पूजा का प्रमुख स्थान है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ! दान और पूजा को श्रावक की मुख्य क्रियाओ मे गिनाया है । जैन शास्त्रो मे अनेक पूजा विधान है वर्णित है, उन सबका उद्देश्य मानव की शाति के लिए है । शुद्ध भावो से की गई पूजा-आराधना रे से भावो मे निर्मलता-आती है जो मनुष्य को वीतरागता की ओर ले जाती है तथा इस लोक ! एव परलोक मे सुख शान्ति प्राप्त कराती है । सिद्धचक्र पूजा भी उनमे से एक है। वैसे यह । पूजा पर्व विशेप की न होकर नित्य पूजा ही है। पूजा के पाच भेदो मे से नित्य पूजा मे ही।
इसको समझा जाना चाहिए किन्तु सिद्धचक्र विधान को अष्टाह्निका पर्व मे ही करने का १ समाज मे प्रचलन है। ये दिन पवित्र होते हैं। सती मैना सुन्दरी ने इस विधान को अष्टाह्निका १ पर्व मे किया था और उससे श्रीपाल आदि का कुष्ठ रोग दूर हुआ था। इसीसे लोग इसे ।
अष्टाह्निका पर्व मे करने लग गये हैं । वैसे अष्टाह्निका का सम्बन्ध नन्दीश्वर विधान से है। अस्तु । पूजा किसी भी समय मे की जाय, शुभ फल देने वाली ही है।
यह पूजा सिद्ध भगवान के गुणो की पूजा है । सिद्धचक्र का अर्थ है 'मुक्त आत्मानो का ? चक्र-मण्डल-समूह' । सिद्ध भगवान के आठ गुणो को लेकर प्रथम पूजा है। फिर कर्म - तियो की व्युच्छित्ति की अपेक्षा से द्विगुणित द्विगुणित अर्घ बढते जाते हैं । अर्थात् दूसरे दिन ।
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